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उमेश मोहन धवन का व्यंग्य आदत बदलो

मजा आ गया
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इधर सरकार ने पेट्रोल के दाम क्या बढ़ा दिये और वो भी केवल साढ़े सात रुपये कि हाय तौबा मच गयी पूर इंडिया में. अरे भइया साढ़े सात रुपये ही तो बढ़े हैं कोई सौ रुपये तो नहीं बढ़े. पहले जब पेट्रोल 25-30 रुपये लीटर था तब भी चिल्लाते थे, फिर पैंसठ रुपये हुआ तब भी चिल्लाये. तो इससे ये साबित होता है कि लोगों की तो आदत है हर हाल में चिल्लाने की. इसके लिये हमारे काका बहुत पहले ही कह चुके हैं कि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना. इसीलिये तो उनके फैंस उनसे कोई नहीं छीन पाया आजतक.  अरे भइया सोचो दाम बढ़ने से पब्लिक का कित्ता फायदा हुआ. जिन दफ्तरों में अफसरों को लीटर के हिसाब से पेट्रोल मिलता है उनको अब हर लीटर साढ़े सात रुपये ज्यादा मिलेंगे कि नहीं. उसका आधा भी तो खर्च नहीं होता है आने जाने में. तो हुयी ना बचत . इससे गधे, घोड़े और ऊंट वालों को भी फायदा हुआ. कोई गधे के पीछे अम्बेसडफर बाँधे खींच रहा है . कोई घोड़े से मर्सिडीज खिंचवा रहा है कि भइया अब तो पेट्रोल के पैसे ही नहीं हैं मर्सिडीज कहाँ से चलायें. भले ही घोड़े वाला बाद में इत्ता पैसा चार्ज कर ले जिससे वो पंद्रह दिन तक दफ्तर आ जा सकते थे पर कोई चिंता नहीं,  अखबार और टीवी में तो घुस गये ना इसी बहाने से . इधर साइकिल दुकानदार भी खुश होकर साइकिलों की गद्दियां पोंछ रहे हैं. एक तो साइकिल रैली निकालने वाले भी बहुत डिमांड कर रहे हैं और दूसरे चिरकुट टाइप के कुछ लोग जो बीवियों के रोज रोज के तानों से त्रस्त होकर गाड़ियां खरीद तो लेते हैं पर चला पाते हैं महीने में चार दिन ही, वो भी दुकान में साइकिल बँधवाते नजर आते हैं. जो लोग इन रैलियों में किसी कारण नहीं जा सकते उनको टीवी पर चटखारे वाली बहसें सुनने को मिल जाती हैं.  जुलूसों के लिये मोमबत्तियां,  काले कपड़े, बैनर बनाने वालों को भी कितना काम मिलने लगता है.  लेकिन इन जुलूसों में मांग करने वाले भी बड़े अजीब होते है. दाम किसी ने बढाये होते है और वो सभा करके उन्हें कम करने की माँग उनसे करते हैं  जिनको सुनने वाले  रिक्शे वाले या आसपास के दुकानदार ही होते हैं. रिक्शवाले तो चाहते ही हैं कि दाम और बढ़ जाये जिससे कि कोई तो उनके रिक्शे बैठे. दुकानदार खुद ही त्रस्त होते हैं दाम बढ़ने से और उनके हाथ में भी कुछ नही होता. कल तो वर्मा जी और शर्मा जी की पुरानी दुश्मनी भी दाम बढ़ने की वजह से ही खत्म हो गयी. अब दोनो गाड़ी पूल करके ही दफ्तर आ जा रहे हैं. ये अलग बात है कि वे ऐसा पहली बार नहीं कर रहे हैं. तो फिर भइया जब इत्ते लोगों को फायदा मिल रहा है तो शोर मचाने की आदत बदलो. लोग तो मिर्ची वाला रेडियो सुनकर भी आलवेज खुश रहते है. इसलिये  रेडियो सुनकर आलवेज खुश रहा करो.

 

लेखक

उमेश मोहन धवन

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